Sunday, May 31, 2020

श्री देवी(मूल परा प्रकृति) का रहस्य


श्री देवी(मूल परा प्रकृति) का रहस्य(Secret Of Superior Nature)

           श्री का अर्थ है परा मूल प्रकृति(Superior Nature) श्री विद्या, षोडशी महाविद्या परा मूल प्रकृति का ही नाम है। परा प्रकृति को ही मूल प्रधान प्रकृति कहा गया है॥
           दुर्गा सप्तशती के प्राधानिक रहस्य में मूल प्रधान प्रकृति का वर्णन है ' ' नागं लिंगं योनिं विभ्रति नृप मूर्धनि' ' अर्थात् परा प्रकृति अपने मस्तक पर नाग, लिंग और योनि को धारण करती है॥ नाग का अर्थ है ' ' काल(समय)' ' ,  योनि का अर्थ है ' ' प्रकृति(nature)' '  एवं लिंग का अर्थ है ' ' पुरुष ' ' प्रधान प्रकृति  काल(समय), प्रकृति(nature) एवं पुरुष के ऊपर शासन करती है॥ परा विद्या(Meta Physics) के द्वारा मूल परा प्रकृति के बारे में ही ज्ञान प्राप्त किया जाता है॥  श्री यंत्र के 16 आवरण हैं इसीलिये श्री पराम्बा देवी को  षोडशी कहा गया है। श्री यन्त्र के 16 आवरण की पूजा करनी चाहिये, श्री विद्या के द्वारा मूल परा प्रकृति की उपासना की जाती है॥ प्रकृति दो प्रकार की है 1.परा मूल प्रकृति 2. अपरा प्रकृति॥  दीपावली की रात्रि को कालरात्रि कहा गया है। दुर्गा सप्तशती के वैकृतिक रहस्य में अपरा प्रकृति का वर्णन है। दशानना महाकाली को भगवान विष्णु की वैष्णवी माया कहा गया है, यही वैष्णवी माया अपरा प्रकृति है जो इनकी उपासना करता है, उस भक्त के ऊपर महाकाली कृपा करती हैं और सम्पूर्ण विश्व को उस भक्त के वश में  कर देती है यही ईश्वर रात्रि है इसी ईश्वर रात्रि की अधिष्ठात्री देवी परा प्रकृति भगवती महात्रिपुर सुन्दरी भुवनेश्वरी हैं इसीलिए वैदिक रात्रि सूक्त  और तंत्रोक्त रात्रि सूक्त का पाठ कराना  चाहिये। रात्रि सूक्त के द्वारा महाकाली की ही स्तुति होती है। श्री सूक्त के द्वारा भगवती मूल प्रधान प्रकृति जी का अभिषेक करना चाहिये  और वैदिक रात्रिसूक्त के द्वारा महाकाली का अभिषेक होना चाहिये। श्री यंत्र के 16 आवरण का विधान से पूजा कराना चाहिये। सौन्दर्य लहरी का भी पाठ कराना चाहिये। सौन्दर्य लहरी श्री विद्या का प्रमुख सिद्ध तांत्रिक ग्रंथ है, इस सौंदर्य लहरी के पाठ कराने से जल्दी सिद्धि प्राप्त होती है। ललिताम्बा के 1008 नाम से कमल के पुष्पों द्वारा मूल प्रकृति श्री पराम्बा देवी की अर्चना करनी चाहिये॥ ललिता सहस्रनाम का पाठ कराने से श्री पराम्बिका मूल प्रकृति की विशेष कृपा प्राप्त होती है और साधक को भोग एवम योग दोनों की प्राप्ति होती है॥

 


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