धर्मानुबन्धनम्
भगवान्
का प्रत्येक अवतार सामान्य-धर्म का उद्धार करने के लिए होता है , किन्तु
इन्ही अवतारों में भी कहीं-कहीं सामान्य-धर्म के विरुद्ध विशेष-धर्म का भी आश्रय
लेते हैं , जो सामान्य-धर्म के विपरीत दिखाई देता है ।
वह
विशेष-धर्म सामान्य धर्मशास्त्र की दृष्टि से पाप होने पर भी धर्मानुबन्धित होने
से उसे धर्म ही कहना चाहिये , क्योंकि
उस धर्म के पथ का अनुसरण करने से जीव का कल्याण होता है ।
जैसे भगवान् राम ने गौ-ब्राह्मण-देवता-सन्त की रक्षा के लिए
अवतार लिया , यह
संस्कृत तथा भाषा की अनेक रामायणों से सिद्ध होता है ।
किन्तु
उसी ब्राह्मण धर्म के विपरीत कर्म करने वाले सोमयाजी वेद के महाविद्वान्
महाब्राह्मण रावण की परिवार सहित हत्या करके अनेकों ऋषियों के धर्म की रक्षा की ।
जैसे भगवान् श्रीकृष्ण ने युद्ध में शस्त्र न धारण करने की
प्रतिज्ञा करके भी अपने भक्त अर्जुन की रक्षा के लिए तथा भीष्म के प्रतिज्ञा की
रक्षा के लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर भी सुदर्शन चक्र धारण कर लिया ।
सामान्य-धर्म
किसी पतिव्रता स्त्री के धर्म को नष्ट करने को महापाप मानता है , किन्तु जब उसी महासती के
पतिव्रत-धर्म के प्रभाव से भगवान् शंकर के हाथों से भी उसका पति नहीं मारा जा सका , और वह इसीके प्रभाव से प्रतिदिन
हजारों स्त्रियों का शीलभंग करता था ।
तब शिवजी की प्रार्थना से महाविष्णु ने करोड़ों सतियों के सतीत्व
की रक्षा के लिए सामान्य-धर्म के विरुद्ध माया से उसके पति जलन्धर का रूप धारण
करके तुलसी का शीलभंग किया व करोड़ों सतियों के सतीत्व की रक्षा की ।
अतः
भगवान् के द्वारा अधर्म के समान भासमान होने पर भी धर्मानुबन्धित होने से यह
विशेष-धर्म है , क्योंकि
यह धर्म मात्र की रक्षा के उद्देश्य से किया ।
धर्मानुबन्धित
= धर्म से सम्बन्धित सर्वसाधारण की दृष्टि में अधर्म होने पर भी जो धर्म हो ।
"अर्थमर्थानुबन्धं च कामं कमानुबन्धनम् ।
धर्म धर्मानुबन्धं च व्यवस्यति स बुद्धिमान् ।।"
धर्म धर्मानुबन्धं च व्यवस्यति स बुद्धिमान् ।।"
धन
वही है जो धन से सम्बन्धित हो , काम
वही है जो काम से सम्बन्धित हो , धर्म
वही है जो धर्म से सम्बन्धित हो --- जो ऐसा मानता है वही बुद्धिमान है ।