Sunday, August 14, 2022

जाति या वर्ण की व्यवस्था इस प्रकार समझें

 साइंस पढ़े हुए लोग जाति या वर्ण की व्यवस्था इस प्रकार समझें कि जैसे स्वर्ण, रजत और ताम्र आदि 3 धातु 3 गुण सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं।


अब 3 धातुओं से आपने 4 मिश्रण तैयार कर लिया जिसे अंग्रेजी में एलॉय कहते हैं जिसमे 3 धातुओं की मात्रा भिन्न भिन्न हैं। अब जिसमे स्वर्ण की मात्रा सबसे अधिक होगी वो ही मिश्रण सबसे मूल्यवान होगा। मान लीजिए 4 मिश्रण A,B,C और D हैं।

यही नियम वर्ण व्यवस्था में हैं जिसमे सतोगुण सबसे अधिक होता है वो होता ब्राह्मण और जिसमे सबसे कम वो शुद्र और मध्य क्षत्रिय और वैश्य आदि।


तो अब आप स्वयं सोचिये कि यदि आप किसी भी दो मिश्रण को मिलाकर कोई नई वस्तु बना दें तो जो नई वस्तु बनेगी वो मिलाए हुए किस मिश्रण के समान होगी तो उत्तर है किसी के नही वो एक स्वतन्त्र मिश्रण हो जाएगी क्योंकि नए मिश्रण में मूल तीनो धातुओं की मात्राएँ बदल जायेंगे।

उदाहरण के लिए A और B को मिला दिया तो जो नया बनेगा वो न A होगा और न B होगा ये एक अलग ही नयी मिश्रण तैयार हो जाएगी जिसे E कह सकते हैं क्योंकि इसमें सोने, चांदी और ताम्बे की मात्राएँ A और B से अलग भिन्न भिन्न हो जाएगी।


पर यदि आप किसी एक मूल मिश्रण से ही कोई वस्तु बनाते हैं तो आप उसी शुद्ध मिश्रण के कहलायेंगे। जैसे A मिश्रण से कोई वस्तु बनाते हैं बिना कुछ मिलाए तो वो A ही कहलायेगा।


यही नियम है वर्ण व्यवस्था में।


यह संसार त्रिगुणात्मक हैं

इन्ही 3 गुणों से मनुष्य भी बना जिसमे सबसे पहले 4 जातियाँ ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ईश्वर द्वारा बनाया गया जिन्हें वर्ण भी कहते हैं। गीता में भगवान् ने स्वयं कहा कि ये चारों वर्ण उन्होंने स्वयं बनाये हैं।


अब इन जातियों को मिश्रित संतान उत्पन्न करने की मनाही है पर कुछ लोग नही माने और मिश्रित संतान उत्पन्न करते गए जिससे नई नई जातियाँ बनती गयी। यहाँ तक कि सन्यास ले चुके या साधु बन चुके लोगों ने भी काम के वशीभूत होकर संतान उत्पन्न कर दिए जिससे और भी नई जातियाँ बन गयी।


आज कलयुग आते आते हजारों जातियाँ हैं जो इन्ही मूल चार जातियों के कुछ लोगों ने उत्पन्न कर दी हैं।

सनातन धर्म वास्तव में इन्ही चार मूल ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियों में विभक्त हैं।


भारत की समृद्धि का मूल भी यह जाति व्यवस्था ही रही है जब जब नई उत्पत्ति हो गयी तब तब हमारे पूर्वजों ने उसे एक नयी स्वतन्त्र जाति बनाकर, उस जाति को एक जन्मना कार्य देकर जाति व्यवस्था को बचाये रखने का प्रयास किया। पर अंग्रेजों ने आर्य समाज, इस्कान, ब्रह्म समाज, राम कृष्ण मिशन, आरएसएस जैसे तमाम संगठन बनाकर धर्म अध्यात्म, वेद, योग आदि के नाम पर वर्ण अथवा जाति की व्यवस्था को नष्ट करने लगे। आज परिणाम यह है कि इतना ज्यादा मिश्रण हो गया कि कुछ पता ही नही है कि कौन कितने पीढ़ी पहले क्या था?


ईसाई और मुसलमान कभी न कभी किसी 4 वर्ण में रहने वाले सनातन धर्मी ही होंगे पर वो हजारों वर्ष पूर्व सनातनधर्म छोड़ दिये और वर्ण अथवा जाति की पहचान को ही मिटा दिए। अब यदि उनमें से कोई सनातनधर्म के अनुसार जीवन जीना चाहता है तो बिल्कुल जी सकता है पर उसकी जाति किसी चार मूल जाति तो छोड़िए उनके द्वारा मिश्रित होकर बने अन्य स्वतंत्र जातियों में भी नही गिनी जा सकती।


सब कलयुग का प्रभाव है कलयुग में वर्ण और जाति तो नष्ट होने ही हैं पर भगवान् की यह भी प्रतिज्ञा है कि मूल बीज को नष्ट नही होने देंगे अतः शुद्ध रूप से ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र तो कलयुग के अंत तक रहेंगे ही बीज को नष्ट करने की छमता संसार के किसी नरसिंघानंद मे नही है।


कलयुग में दो जातियों से संतान उत्पन्न करना निषेध है अतः जितने भी विवाह भिन्न भिन्न जातियों में हो रहे हैं वो सब शास्त्र विधि के विरुद्ध होने से अवैध हैं और उनकी संताने भी अवैध संताने कहलाएंगी। हा कोर्ट या संविधान के नियम से भले वैध हो पर धर्मराज यमराज के यहाँ उन्हें अवैध ही माना जायेगा वहाँ तो शास्त्र ही चलता है संविधान नही।


आदि शंकराचार्य भी इसी जाति की व्यवस्था बचाये रखने के लिए निर्देश देकर चले गए क्योंकि जाति धर्म ही स्वधर्म है सनातन धर्म है। गीता में जातिधर्म कुलधर्म को सनातन कहा गया है- जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।


जो लोग वर्ण व्यवस्था को कर्मणा कहते हैं और वर्ण अथवा जाति को नष्ट करने पर लगें है वो सब सनातनधर्म के मूल शत्रु हैं और धर्मरक्षकों के द्वारा वध करने योग्य हैं ये शास्त्रों में ऋषियों का आदेश हैं।


जाति पेट से पैदा हुए बच्चे को मिलती है वो भी तब जब स्त्री पुरुष दोनों एक उसी जाति के हो। किसी मनुष्य को बिना दूसरे जाति में पैदा हुए वो जाति नही मिल सकती। यही सत्य है।

सर्वोच्च आचार्य परम्परा का क्रम

 (.. वैदिक हिन्दू धर्म की सर्वमान्य, सार्वभौम एवं सर्वोच्च आचार्य परम्परा का क्रम)


1 अरब, 97 करोड़, 29 लाख, 49 हजार , 121 वर्ष पुरानी गुरु परम्परा में हमारे पूज्य गुरुदेव श्रीमज्जगद्गुरु पुरी शङ्कराचार्य भगवान् का स्थान भगवत्पाद शिवावतार आदि शङ्कराचार्यजी से 145वाॅं व भगवान् श्रीमन्नारायण से 155वाॅं है।


बता दें कि आदि शङ्कराचार्य भगवान् से लेकर हमारे पूज्य आचार्य चरण तक जो -जो पूज्य आचार्य हुए हैं उनका नाम एवं कालखण्ड आज भी प्रमाणिक रीति से उपलब्ध है।


उल्लेखनीय है कि जिस समय भगवत्पाद शंकराचार्य जी का आविर्भाव ( ईस्वी सन् से 507 वर्ष पूर्व) हुआ था ; उस समय दुनिया में ना कोई मजहब था और ना ही कोई रिलीजन...

 भारतवर्ष के गुरुकुलों में क्या पढ़ाई होती थी, ये जान लेना आवश्यक है। इस शिक्षा को लेकर अपने विचारों में परिवर्तन लाएं और भ्रांतियां दूर करें!!! वामपंथी इसे जरूर पढें!


१. अग्नि विद्या ( Metallergy )

२. वायु विद्या ( Aviation )

३. जल विद्या ( Navigation )

४. अंतरिक्ष विद्या ( Space Science)

५. पृथ्वी विद्या ( Environment & Ecology)

६. सूर्य विद्या ( Solar System Studies )

७. चन्द्र व लोक विद्या ( Lunar Studies )

८. मेघ विद्या ( Weather Forecast )

९. पदार्थ विद्युत विद्या ( Battery )

१०. सौर ऊर्जा विद्या ( Solar Energy )

११. दिन रात्रि विद्या

१२. सृष्टि विद्या ( Space Research )

१३. खगोल विद्या ( Astronomy)

१४. भूगोल विद्या (Geography )

१५. काल विद्या ( Time )

१६. भूगर्भ विद्या (Geology and Mining )

१७. रत्न व धातु विद्या ( Gemology and Metals )

१८. आकर्षण विद्या ( Gravity )

१९. प्रकाश विद्या ( Optics)

२०. तार संचार विद्या ( Communication )

२१. विमान विद्या ( Aviation )

२२. जलयान विद्या ( Water , Hydraulics Vessels )

२३. अग्नेय अस्त्र विद्या ( Arms and Amunition )

२४. जीव जंतु विज्ञान विद्या ( Zoology Botany )

२५. यज्ञ विद्या ( Material Sc)


वैज्ञानिक विद्याओं की अब बात करते है व्यावसायिक और तकनीकी विद्या की


वाणिज्य ( Commerce )

भेषज (Pharmacy)

शल्यकर्म व चिकित्सा (Diagnosis and Surgery)

कृषि (Agriculture )

पशुपालन ( Animal Husbandry )

पक्षिपलन ( Bird Keeping )

पशु प्रशिक्षण ( Animal Training )

यान यन्त्रकार ( Mechanics)

रथकार ( Vehicle Designing )

रतन्कार ( Gems )

सुवर्णकार ( Jewellery Designing )

वस्त्रकार ( Textile)

कुम्भकार ( Pottery)

लोहकार (Metallergy)

तक्षक (Toxicology)

रंगसाज (Dying)

रज्जुकर (Logistics)

वास्तुकार ( Architect)

पाकविद्या (Cooking)

सारथ्य (Driving)

नदी जल प्रबन्धक (Dater Management)

सुचिकार (Data Entry)

गोशाला प्रबन्धक (Animal Husbandry)

उद्यान पाल (Horticulture)

वन पाल (Forestry)

नापित (Paramedical)

अर्थशास्त्र (Economics)

तर्कशास्त्र (Logic)

न्यायशास्त्र (Law)

नौका शास्त्र (Ship Building)

रसायनशास्त्र (Chemical Science)

ब्रह्मविद्या (Cosmology)

न्यायवैद्यकशास्त्र (Medical Jurisprudence) - अथर्ववेद

क्रव्याद (Postmortem) --अथर्ववेद


आदि विद्याओ क़े तंत्रशिक्षा क़े वर्णन हमें वेद और उपनिषद में मिलते है ॥


यह सब विद्या गुरुकुल में सिखाई जाती थी पर समय के साथ गुरुकुल लुप्त हुए तो यह विद्या भी लुप्त होती गयी।


आज अंग्रेज मैकाले पद्धति से हमारे देश के युवाओं का भविष्य नष्ट हो रहा तब ऐसे समय में गुरुकुल के पुनः उद्धार की आवश्यकता है।


कुछ_प्रसिद्ध_भारतीय_प्राचीन_ऋषि_मुनि_वैज्ञानिक_एवं_संशोधक


पुरातन ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन ऋषि-मुनि एवं दार्शनिक हमारे आदि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अनेक आविष्कार किए और विज्ञान को भी ऊंचाइयों पर पहुंचाया।


अश्विनीकुमार: मान्यता है कि ये देवताओं के चिकित्सक थे। कहा जाता है कि इन्होंने उड़ने वाले रथ एवं नौकाओं का आविष्कार किया था।


धन्वंतरि: इन्हें आयुर्वेद का प्रथम आचार्य व प्रवर्तक माना जाता है। इनके ग्रंथ का नाम धन्वंतरि संहिता है। शल्य चिकित्सा शास्त्र के आदि प्रवर्तक सुश्रुत और नागार्जुन इन्हीं की परंपरा में हुए थे।


महर्षि_भारद्वाज: आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ही ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।


महर्षि_विश्वामित्र: ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी।

ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।


महर्षि_गर्गमुनि: गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार।ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के बारे में नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ। कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।


महर्षि_पतंजलि: आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को भी रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।


महर्षि_कपिल_मुनि: सांख्य दर्शन के प्रवर्तक व सूत्रों के रचयिता थे महर्षि कपिल, जिन्होंने चेतना की शक्ति एवं त्रिगुणात्मक प्रकृति के विषय में महत्वपूर्ण सूत्र दिए थे।


महर्षि_कणाद: ये वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक हैं। ये अणु विज्ञान के प्रणेता रहे हैं। इनके समय अणु विज्ञान दर्शन का विषय था, जो बाद में भौतिक विज्ञान में आया।


महर्षि_सुश्रुत: ये शल्य चिकित्सा पद्धति के प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य थे। इन्होंने सुश्रुत संहिता नामक ग्रंथ में शल्य क्रिया का वर्णन किया है। सुश्रुत ने ही त्वचारोपण (प्लास्टिक सर्जरी) और मोतियाबिंद की शल्य क्रिया का विकास किया था। पार्क डेविस ने सुश्रुत को विश्व का प्रथम शल्यचिकित्सक कहा है।


जीवक: सम्राट बिंबसार के एकमात्र वैद्य। उज्जयिनी सम्राट चंडप्रद्योत की शल्य चिकित्सा इन्होंने ही की थी। कुछ लोग मानते हैं कि गौतम बुद्ध की चिकित्सा भी इन्होंने की थी।


महर्षि_बौधायन: बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुलयशास्त्र के रचयिता थे। आज दुनिया भर में यूनानी उकेलेडियन ज्योमेट्री पढाई जाती है मगर इस ज्योमेट्री से पहले भारत के कई गणितज्ञ ज्योमेट्री के नियमों की खोज कर चुके थे। उन गणितज्ञ में बौधायन का नाम सबसे ऊपर है, उस समय ज्योमेट्री या एलजेब्रा को भारत में शुल्वशास्त्र कहा जाता था।


महर्षि_भास्कराचार्य: आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।


महर्षि_चरक: चरक औषधि के प्राचीन भारतीय विज्ञान के पिता के रूप में माने जातें हैं। वे कनिष्क के दरबार में राज वैद्य (शाही चिकित्सक) थे, उनकी चरक संहिता चिकित्सा पर एक उल्लेखनीय पुस्तक है। इसमें रोगों की एक बड़ी संख्या का विवरण दिया गया है और उनके कारणों की पहचान करने के तरीकों और उनके उपचार की पद्धति भी प्रदान करती है। वे स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण पाचन, चयापचय और प्रतिरक्षा के बारे में बताते थे और इसलिए चिकित्सा विज्ञान चरक संहिता में, बीमारी का इलाज करने के बजाय रोग के कारण को हटाने के लिए अधिक ध्यान रखा गया है। चरक आनुवांशिकी (अपंगता) के मूल सिद्धांतों को भी जानते थे।


ब्रह्मगुप्त: 7 वीं शताब्दी में, ब्रह्मगुप्त ने गणित को दूसरों से परे ऊंचाइयों तक ले गये। गुणन के अपने तरीकों में, उन्होंने लगभग उसी तरह स्थान मूल्य का उपयोग किया था, जैसा कि आज भी प्रयोग किया जाता है। उन्होंने गणित में शून्य पर नकारात्मक संख्याएं और संचालन शुरू किया। उन्होंने ब्रह्म मुक्त सिध्दांतिका को लिखा, जिसके माध्यम से अरब देश के लोगों ने हमारे गणितीय प्रणाली को जाना।


महर्षि_अग्निवेश: ये शरीर विज्ञान के रचयिता थे।


महर्षि_शालिहोत्र: इन्होंने पशु चिकित्सा पर आयुर्वेद ग्रंथ की रचना की।


व्याडि: ये रसायनशास्त्री थे। इन्होंने भैषज (औषधि) रसायन का प्रणयन किया। अलबरूनी के अनुसार, व्याडि ने एक ऐसा लेप बनाया था, जिसे शरीर पर मलकर वायु में उड़ा जा सकता था।


आर्यभट्ट: इनका जन्म 476 ई. में कुसुमपुर ( पाटलिपुत्र ) पटना में हुआ था | ये महान खगोलशास्त्र और व गणितज्ञ थे | इन्होने ही सबसे पहले सूर्ये और चन्द्र ग्रहण की वियाख्या की थी | और सबसे पहले इन्होने ही बताया था की धरती अपनी ही धुरी पर धूमती है| और इसे सिद्ध भी किया था | और यही नही इन्होने हे सबसे पहले पाई के मान को निरुपित किया।


महर्षि_वराहमिहिर: इनका जन्म 499 ई . में कपित्थ (उज्जेन ) में हुआ था | ये महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्र थे | इन्होने पंचसिद्धान्तका नाम की किताब लिखी थी जिसमे इन्होने बताया था की , अयनांश , का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर होता होता है | और इन्होने शून्य और ऋणात्मक संख्याओ के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया |


हलायुध: इनका जन्म 1000 ई . में काशी में हुआ था | ये ज्योतिषविद , और गणितज्ञ व महान वैज्ञानिक भी थे | इन्होने अभिधानरत्नमाला या मृतसंजीवनी नमक ग्रन्थ की रचना की | इसमें इन्होने या की पास्कल त्रिभुज ( मेरु प्रस्तार ) का स्पष्ट वर्णन किया है।पुरातन ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन ऋषि-मुनि एवं दार्शनिक हमारे आदि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अनेक आविष्कार किए और विज्ञान को भी ऊंचाइयों पर पहुंचाया।


5000 साल पहले ब्राह्मणों_ने_हमारा_बहुत_शोषण किया ब्राह्मणों ने हमें पढ़ने से रोका,यह बात बताने वाले महान इतिहासकार यह नहीं बताते कि 500 साल पहले मुगलों ने हमारे साथ क्या किया 100 साल पहले अंग्रेजो ने हमारे साथ क्या किया?


हमारे देश में शिक्षा नहीं थी लेकिन 1897 में शिवकर_बापूजी_तलपडे_ने_हवाई_जहाज बनाकर उड़ाया था मुंबई में जिसको देखने के लिए उस टाइम के हाई कोर्ट के जज महा गोविंद रानाडे और मुंबई के एक राजा महाराज गायकवाड के साथ-साथ हजारों लोग मौजूद थे जहाज देखने के लिए

उसके बाद एक डेली_ब्रदर_नाम_की_इंग्लैंड की कंपनी ने शिवकर_बापूजी_तलपडे के साथ समझौता किया और बाद में बापू जी की मृत्यु हो गई यह मृत्यु भी एक षड्यंत्र है हत्या कर दी गई और फिर बाद में 1903 में राइट बंधु ने जहाज बनाया।


आप लोगों को बताते चलें कि आज से हजारों साल पहले की किताब है महर्षि_भारद्वाज_की_विमान_शास्त्र जिसमें 500 जहाज 500 प्रकार से बनाने की विधि है उसी को पढ़कर शिवकर बापूजी तलपडे ने जहाज बनाई थी।


लेकिन यह तथाकथित नास्तिक_लंपट_ईसाइयों के दलाल जो है तो हम सबके ही बीच से लेकिन हमें बताते हैं कि भारत में तो कोई शिक्षा ही नहीं था कोई रोजगार नहीं था।


अमेरिका_के_प्रथम_राष्ट्रपति_जॉर्ज_वाशिंगटन 14 दिसंबर 1799 को मरे थे सर्दी और बुखार की वजह से उनके पास बुखार की दवा नहीं थी उस टाइम भारत_में_प्लास्टिक_सर्जरी_होती_थी और अंग्रेज प्लास्टिक सर्जरी सीख रहे थे हमारे गुरुकुल में अब कुछ वामपंथी लंपट बोलेंगे यह सरासर झूठ है।


तो वामपंथी लंपट गिरोह कर सकते है

ऑस्ट्रेलियन_कॉलेज_ऑफ_सर्जन_मेलबर्न में ऋषि_सुश्रुत_ऋषि की प्रतिमा "फादर ऑफ सर्जरी" टाइटल के साथ स्थापित है।


15 साल साल पहले का 2000 साल पहले का मंदिर मिलते हैं जिसको आज के वैज्ञानिक_और_इंजीनियर देखकर हैरान में हो जाते हैं कि मंदिर बना कैसे होगा अब हमें_इन_वामपंथी_लंपट लोगो से हमें पूछना चाहिए कि मंदिर बनाया किसने


ब्राह्मणों_ने_हमें पढ़ने नहीं दिया यह बात बताने वाले महान इतिहासकार हमें यह नहीं बताते कि सन 1835 तक भारत में 700000 गुरुकुल थे इसका पूरा डॉक्यूमेंट Indian house में मिलेगा ।


भारत गरीब देश था चाहे है तो फिर दुनिया के तमाम आक्रमणकारी भारत ही क्यों आए हमें अमीर बनाने के लिए!


भारत में कोई रोजगार नहीं था।

भारत में पिछड़े दलितों को गुलाम बनाकर रखा जाता था लेकिन वामपंथी लंपट आपसे यह नहीं बताएंगे कि हम 1750 में पूरे दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा 24 परसेंट था

और सन उन्नीस सौ में एक परसेंट पर आ गया आखिर कारण क्या था?


अगर हमारे देश में उतना ही छुआछूत थे हमारे देश में रोजगार नहीं था तो फिर पूरे दुनिया के व्यापार में हमारा 24 परसेंट का व्यापार कैसे था?


यह वामपंथी यह नहीं बताएंगे कि कैसे अंग्रेजों के नीतियों के कारण भारत में लोग एक ही साथ 3000000 लोग भूख से मर गए कुछ दिन के अंतराल में ।


एक बेहद खास बात वामपंथी या अंग्रेज दलाल कहते हैं इतना ही भारत समप्रीत था इतना ही सनातन संस्कृति समृद्ध थी तो सभी अविष्कार अंग्रेजों ने ही क्यों किए हैं भारत के लोगों ने कोई भी अविष्कार क्यों नहीं किया?


उन वामपंथी लोगों को बताते चलें कि किया तो सब आविष्कार भारत में ही लेकिन उन लोगों ने चुरा करके अपने नाम से पेटेंट कराया नहीं तो एक बात बताओ भारत आने से पहले अंग्रेजों ने कोई एक अविष्कार किया हो तो उसका नाम बताओ एवर थोड़ा अपना दिमाग लगाओ कि भारत आने के बाद ही यह लोग आविष्कार कैसे करने लगे, उससे पहले क्यों नहीं करते थे।

सुख-समृद्धि देने वाले पंचायतन (पाँच देवताओ) की पुजा का महत्त्व एवं विधि!!!!!!!!

 सुख-समृद्धि देने वाले पंचायतन (पाँच देवताओ) की पुजा का महत्त्व एवं विधि!!!!!!!!


हिन्दू धर्म में पांच प्रमुख देवता कौन-से हैं और अन्य देवताओं की अपेक्षा इन पांच देवों की ही प्रधानता क्यों है ? घर के मन्दिर में पंचायतन की स्थापना करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?


हिन्दू पूजा पद्यति में किसी भी कार्य का शुभारंभ करने अथवा जप-अनुष्ठान एवं प्रत्येक मांगलिक कार्य के आरंभ में सुख-समृद्धि देने वाले पांच देवता, एक ही परमात्मा पांच इष्ट रूपों में पूजे जाते है।


एक परम प्रभु चिदानन्दघन परम तत्त्व हैं सर्वाधार।

सर्वातीत, सर्वगत वे ही अखिल विश्वमय रुप अपार।

हरि, हर, भानु, शक्ति, गणपति हैं इनके पांच स्वरूप उदार।

मान उपास्य उन्हें भजते जन भक्त स्वरुचि श्रद्धा अनुसार। (पद-रत्नाकर)


निराकार ब्रह्म के साकार रूप हैं पंचदेव!!!!!!


परब्रह्म परमात्मा निराकार व अशरीरी है, अत: साधारण मनुष्यों के लिए उसके स्वरूप का ज्ञान असंभव है । इसलिए निराकार ब्रह्म ने अपने साकार रूप में पांच देवों को उपासना के लिए निश्चित किया जिन्हें पंचदेव कहते हैं । ये पंचदेव हैं—विष्णु, शिव, गणेश, सूर्यऔर शक्ति।


आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रं च केशवम् ।

पंचदैवतभित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत् ।।

एवं यो भजते विष्णुं रुद्रं दुर्गां गणाधिपम् ।

भास्करं च धिया नित्यं स कदाचिन्न सीदति ।। (उपासनातत्त्व)


अर्थात्—सूर्य, गणेश, देवी, रुद्र और विष्णु—ये पांच देव सब कामों में पूजने योग्य हैं, जो आदर के साथ इनकी आराधना करते हैं वे कभी हीन नहीं होते, उनके यश-पुण्य और नाम सदैव रहते हैं ।


वेद-पुराणों में पंचदेवों की उपासना को महाफलदायी और उसी तरह आवश्यक बतलाया गया है जैसे नित्य स्नान को । इनकी सेवा से ‘परब्रह्म परमात्मा’ की उपासना हो जाती है ।


अन्य देवताओं की अपेक्षा इन पांच देवों की प्रधानता ही क्यों?


अन्य देवों की अपेक्षा पंचदेवों की प्रधानता के दो कारण हैं—


१. पंचदेव पंचभूतों के अधिष्ठाता (स्वामी) हैं


पंचदेव आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी—इन पंचभूतों के अधिपति हैं ।


—सूर्य वायु तत्त्व के अधिपति हैं इसलिए उनकी अर्घ्य और नमस्कार द्वारा आराधना की जाती है ।


—गणेश के जल तत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा करने का विधान हैं, क्योंकि सृष्टि के आदि में सर्वत्र ‘जल’ तत्त्व ही था ।


—शक्ति (देवी, जगदम्बा) अग्नि तत्त्व की अधिपति हैं इसलिए भगवती देवी की अग्निकुण्ड में हवन के द्वारा पूजा करने का विधान हैं ।


—शिव पृथ्वी तत्त्व के अधिपति हैं इसलिए उनकी शिवलिंग के रुप में पार्थिव-पूजा करने का विधान हैं ।

—विष्णु आकाश तत्त्व के अधिपति हैं इसलिए उनकी शब्दों द्वारा स्तुति करने का विधान हैं ।


२. अन्य देवों की अपेक्षा इन पंचदेवों के नाम के अर्थ ही ऐसे हैं कि जो इनके ब्रह्म होने के सूचक हैं—


विष्णु अर्थात् सबमें व्याप्त,

शिव यानी कल्याणकारी,

गणेश अर्थात् विश्व के सभी गणों के स्वामी,

सूर्य अर्थात् सर्वगत (सभी जगह जाने वाले),


शक्ति अर्थात् सामर्थ्य ।


संसार में देवपूजा को स्थायी रखने के उद्देश्य से वेदव्यासजी ने विभिन्न देवताओं के लिए अलग-अलग पुराणों की रचना की । अपने-अपने पुराणों में इन देवताओं को सृष्टि को पैदा करने वाला, पालन करने वाला और संहार करने वाला अर्थात् ब्रह्म माना गया है । जैसे विष्णुपुराण में विष्णु को, शिवपुराण में शिव को, गणेशपुराण में गणेश को, सूर्यपुराण में सूर्य को और शक्तिपुराण में शक्ति को ब्रह्म माना गया है । अत: मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार किसी भी देव को पूजे, उपासना एक ब्रह्म की ही होती है क्योंकि पंचदेव ब्रह्म के ही प्रतिरुप (साकार रूप) हैं । उनकी उपासना या आराधना में ब्रह्म का ही ध्यान होता है और वही इष्टदेव में प्रविष्ट रहकर मनवांछित फल देते हैं । वही एक परमात्मा अपनी विभूतियों में आप ही बैठा हुआ अपने को सबसे बड़ा कह रहा है वास्तव में न तो कोई देव बड़ा है और न कोई छोटा ।


एक उपास्य देव ही करते लीला विविध अनन्त प्रकार ।

पूजे जाते वे विभिन्न रूपों में निज-निज रुचि अनुसार ।। (पद रत्नाकर)


पंचदेव और उनके उपासक!!!!!!


विष्णु के उपासक ‘वैष्णव’ कहलाते हैं,

शिव के उपासक ‘शैव’ के नाम से जाने जाते हैं, गणपति के उपासक ‘गाणपत्य’ कहलाते हैं,

सूर्य के उपासक ‘सौर’ होते हैं, और शक्ति के उपासक ‘शाक्त’ कहलाते हैं ।

इनमें शैव, वैष्णव और शाक्त विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं ।


पंचदेवों के ही विभिन्न नाम और रूप हैं अन्य देवता!!!!!


शालग्राम, लक्ष्मीनारायण, सत्यनारायण, गोविन्ददेव, सिद्धिविनायक, हनुमान, भवानी, भैरव, शीतला, संतोषीमाता, वैष्णोदेवी, कामाख्या, अन्नपूर्णा आदि अन्य देवता इन्हीं पंचदेवों के रूपान्तर (विभिन्न रूप) और नामान्तर हैं ।


पंचायतन में किस देवता को किस कोण (दिशा) में स्थापित करें??????


पंचायतन विधि—पंचदेवोपासना में पांच देव पूज्य हैं । पूजा की चौकी या सिंहासन पर अपने इष्टदेव को मध्य में स्थापित करके अन्य चार देव चार दिशाओं में स्थापित किए जाते हैं। इसे ‘पंचायतन’कहते हैं । शास्त्रों के अनुसार इन पाँच देवों की मूर्तियों को अपने इष्टदेव के अनुसार सिंहासन में स्थापित करने का भी एक निश्चित क्रम है । इसे ‘पंचायतन विधि’ कहते हैं । जैसे—


विष्णु पंचायतन—जब विष्णु इष्ट हों तो मध्य में विष्णु, ईशान कोण में शिव, आग्नेय कोण में गणेश, नैऋत्य कोण में सूर्य और वायव्य कोण में शक्ति की स्थापना होगी।


सूर्य पंचायतन—यदि सूर्य को इष्ट के रूप में मध्य में स्थापित किया जाए तो ईशान कोण में शिव, अग्नि कोण में गणेश, नैऋत्य कोण में विष्णु और वायव्य कोण में शक्ति की स्थापना होगी ।


देवी पंचायतन—जब देवी भवानी इष्ट रूप में मध्य में हों तो ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में शिव, नैऋत्य कोण में गणेश और वायव्य कोण में सूर्य रहेंगे ।


शिव पंचायतन—जब शंकर इष्ट रूप में मध्य में हों तो ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में सूर्य, नैऋत्य कोण में गणेश और वायव्य कोण में शक्ति का स्थान होगा ।


गणेश पंचायतन—जब इष्ट रूप में मध्य में गणेश की स्थापना है तो ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में शिव, नैऋत्य कोण में सूर्य तथा वायव्य कोण में शक्ति की पूजा होगी ।


शास्त्रों के अनुसार यदि पंचायतन में देवों को अपने स्थान पर न रखकर अन्यत्र स्थापित कर दिया जाता है तो वह साधक के दु:ख, शोक और भय का कारण बन जाता है ।


देवता चाहे एक हो, अनेक हों, तीन हों या तैंतीस करोड़ हो, उपासना ‘पंचदेवों’ की ही प्रसिद्ध है । इन सबमें गणेश का पूजन अनिवार्य है । यदि अज्ञानवश गणेश का पूजन न किया जाए तो विघ्नराज गणेशजी उसकी पूजा का पूरा फल हर लेते हैं।

Friday, July 3, 2020

वास्तु पुरुष के प्रादुर्भाव के संबंध में जानकारी

वास्तु शास्त्र का परिचय एवं वास्तु पुरुष के प्रादुर्भाव के संबंध में जानकारी हमें प्राचीनतम ग्रंथों, वेदों और पुराणों में विस्तार से मिलती हैl

 ‘मत्स्य पुराण’, ‘भविष्य पुराण’ ‘स्कंद पुराण’ गरुड़ पुराण इत्यादि पुराणों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ‘वास्तु’ के प्रादुर्भाव की कथा अत्यंत प्राचीन है। इस लेख में कि वास्तु पुरूष का प्रादुर्भाव कैसे हुआ, क्यों उनकी पूजा की जानी चाहिए तथा उनकी पूजा की उपयुक्त विधि क्या है?

मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य रूपधारी भगवान विष्णु ने सर्वप्रथम मनु के समक्ष वास्तु शास्त्र को प्रकट किया था, तदनंतर उनके उसी उपदेश को सूत जी ने अन्य ऋषियों के समक्ष प्रकट किया।

 ‘भृगु’, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, माय, नारद, नग्नजित, भगवान शिव, इंद्र, ब्रह्मा, कुमार, नंदीश्वर,
शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति- ये अठारह वास्तु शास्त्र के उपदेष्टा माने गये हैं।

‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार प्राचीन काल में भयंकर अंधकासुर वध के समय विकराल रूपधारी भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर उनके स्वेद बिंदु गिरे थे, उससे एक भीषण एवं विकराल मुख वाला प्राणी उत्पन हुआ।

वह पृथ्वी पर गिरे हुए अंधकों के रक्त का पान करने लगा, रक्त पान करने पर भी जब वह तृप्त न हुआ, तो वह भगवान शंकर के सम्मुख अत्यंत घोर तपस्या में संलग्न हो गया।

 जब वह भूख से व्याकुल हुआ तो पुनः त्रिलोकी का भक्षण करने के लिए उद्यत हुआ। तब उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान शंकर उससे बोले- ‘निष्पाप तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारी जो अभिलाषा है, वह वर मांग लो।’’

 उस प्राणी ने शिवजी से कहा- देवदेवेश मैं तीनों लोकों को ग्रस लेने के लिए समर्थ होना चाहता हूं। इस पर त्रिशूल धारी ने कहा-’’ ऐसा ही होगा, फिर तो वह प्राणी शिवजी के वरदान स्वरूप अपने विशाल शरीर से स्वर्ग, संपूर्ण भूमंडल और आकाश को अवरुद्ध करता हुआ पृथ्वी पर आ गिरा।

भयभीत हुए देवता और ब्रह्मा, शिव, दैत्यों और राक्षसों द्वारा वह स्तंभित कर दिया गया। उसे वहीं पर औंधे मुंह गिराकर सभी देवता उस पर विराजमान हो गये। इस प्रकार सभी देवताओं के द्वारा उसपर निवास करने के कारण वह पुरुष ‘वास$तु= ‘वास्तु’ नाम से विख्यात हुआ।

तब उस दबे हुए प्राणी ने देवताओं से निवेदन किया- ‘‘देवगण आप लोग मुझ पर प्रसन्न हों, आप लोगों द्वारा दबाकर मैं निश्चल बना दिया गया हूं, भला इस प्रकार अवरुद्ध कर दिये जाने पर नीचे मुख किये मैं कब तक और किस तरह स्थित रह सकूंगा।

 उसके ऐसा निवेदन करने पर ब्रह्मा आदि देवताओं ने कहा- वास्तु के प्रसंग में तथा वैश्वेदेव के अंत में जो बलि दी जायेगी वह तुम्हारा आहार होगा।

आज से वास्तु शांति के लिए जो- यज्ञ होगा वह भी तुम्हारा आहार होगा, निश्चय ही यज्ञोत्सव में दी गई बलि भी तुम्हें आहार रूप में प्राप्त होगी।

 गृह निर्माण से पूर्व जो व्यक्ति वास्तु पूजा नहीं करेंगे अथवा उनके द्वारा अज्ञानता से किया गया यज्ञ भी तुम्हें आहार स्वरूप प्राप्त होगा। ऐसा कहने पर वह (अंधकासुर) वास्तु नामक प्राणी प्रसन्न हो गया। इसी कारण तभी से जीवन में शांति के लिए वास्तु पूजा का आरंभ हुआ।
वास्तु मण्डल का निर्माण एवं वास्तु-पूजन विधि: उतम भूमि के चयन के लिए तथा वास्तु मण्डल के निर्माण के लिए सर्वप्रथम भूमि पर अंकुरों का रोपण कर भूमि की परीक्षा कर लें, तदनंतर उतम भूमि के मध्य में वास्तु मण्डल का निर्माण करें। वास्तु मण्डल के देवता 45 हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-

1. शिखी 2. पर्जन्य 3. जयंत 4. कुलिशायुध 5. सूर्य 6. सत्य 7. वृष 8. आकश 9. वायु 10. पूषा 11. वितथ 12. गहु  13. यम 14. गध्ंर्व 15. मगृ राज 16. मृग 17. पितृगण 18. दौवारिक 19. सुग्रीव 20. पुष्प दंत 21. वरुण 22. असुर 23. पशु 24. पाश 25. रोग 26. अहि 27. मोक्ष 28. भल्लाट 29. सामे 30. सर्प 31. अदिति 32. दिति 33. अप 34. सावित्र 35. जय 36. रुद्र 37. अर्यमा 38. सविता 39. विवस्वान् 40. बिबुधाधिप 41. मित्र 42. राजपक्ष्मा 43. पृथ्वी धर 44. आपवत्स 45. ब्रह्मा।

इन 45 देवताओं के साथ वास्तु मण्डल के बाहर ईशान कोण में चर की, अग्नि कोण में विदारी, नैत्य कोण में पूतना तथा वायव्य कोण में पाप राक्षसी की स्थापना करनी चाहिए। मण्डल के पूर्व में स्कंद, दक्षिण में अर्यमा, पश्चिम में जृम्भक तथा उतर में पिलिपिच्छ की स्थापना करनी चाहिए।

 वास्तु मण्डल में 53 देवी-देवताओं की स्थापना होती है। इन सभी का विधि से पूजन करना चाहिए। मंडल के बाहर ही पूर्वादि दस दिशाओं में दस दिक्पाल देवताओं की स्थापना होती है। इन सभी का विधि से पूजन करना चाहिए।

मंडल के बाहर ही पूर्वादि दस दिशाओं में दस दिक्पाल देवताओं इंद्र, अग्नि, यम, निऋृति,
 वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा तथा अनंत की यथास्थान पूजा कर उन्हें नैवेद्य निवेदित करना चाहिए।

वास्तु मंडल की रेखाएं श्वेतवर्ण से तथा मध्य में कमल रक्त वर्ण से निर्मित करना चाहिए। शिखी आदि 45 देवताओं के कोष्ठकों को रक्तवर्ण से अनुरंजित करना चाहिए।

पवित्र स्थान पर लिपी-पुती डेढ़ हाथ के प्रमाण की भूमि पर पूर्व से पश्चिम तथा उतर से दक्षिण दस-दस रेखाएं खींचें। इससे 81 कोष्ठकों के वास्तुपद चक्र का निर्माण होगा।

इसी प्रकार 9-9 रेखाएं खींचने से 64 पदों का वास्तुचक्र बनता है। वास्तु मण्डल के पूर्व लिखित 45 देवताओं के पूजन के मंत्र इस प्रकार हैं-

ऊँ शिख्यै नमः, ऊँ पर्जन्यै नमः, ऊँ जयंताय नमः, ऊँ कुलिशयुधाय नमः, ऊँ सूर्याय नमः, ऊँ सत्याय नमः, ऊँ भृशसे नमः, ऊँ आकाशाय नमः, ऊँ वायवे नमः, ऊँ पूषाय नमः, ऊँ वितथाय नमः, ऊँ गुहाय नमः, ऊँ यमाय नमः, ऊँ गन्धर्वाय नमः, ऊँ भृंग राजाय नमः,, ऊँ मृगाय नमः, ऊँ पित्रौ नमः, ऊँ दौवारिकाय नमः, ऊँ सुग्रीवाय नमः, ऊँ पुष्पदंताय नमः, ऊँ वरुणाय नमः, ऊँ असुराय नमः, ऊँ शेकाय नमः, ऊँ पापहाराय नमः, ऊँ रोग हाराय नमः, ऊँ अदियै नमः, ऊँ मुख्यै नमः, ऊँ भल्लाराय नमः, ऊँ सोमाय नमः, ऊँ सर्पाय नमः, ऊँ अदितयै नमः, ऊँ दितै नमः, ऊँ आप्ये नमः, ऊँ सावित्रे नमः, ऊँ जयाय नमः, ऊँ रुद्राय नमः, ऊँ अर्यमाय नमः, ऊँ सवितौय नमः, ऊँ विवस्वते नमः, ऊँ बिबुधाधिपाय नमः, ऊँ मित्राय नमः, ऊँ राजयक्ष्मै नमः, ऊँ पृथ्वी धराय नमः, ऊँ आपवत्साय नमः, ऊँ ब्रह्माय नमः।

इन मंत्रों द्वारा वास्तु देवताओं का विधिवत पूजन हवन करने के पश्चात् ब्राह्मण को दान दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिए।

तदनंतर वास्तु मण्डल, वास्तु कुंड, वास्तु वेदी का निर्माण कर मण्डल के ईशान कोण में कलश स्थापित कर गणेश जी एवं कुंड के मध्य में विष्णु जी, दिक्पाल, ब्रह्मा आदि का विधिवत पूजन करना चाहिए। अंत में वास्तु पुरुष का ध्यान निम्न मंत्र द्वारा करते हुए उन्हें अघ्र्य, पाद्य, आसन, धूप आदि समर्पित करना चाहिए।

वास्तु पुरुष का मंत्र:
 वास्तोष्पते प्रति जानीहृस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवान्। यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्वं शं नो’’ भव द्विपेद शं चतुषपदे।।

 कलश पूजन: वास्तु पूजन में किसी विद्वान ब्राह्मण द्वारा कलश स्थापना एवं कलश पूजन अवश्य करवाना चाहिए। कलश में जल भरकर नदी संगम की मिट्टी, कुछ वनस्पतियां तथा जौ और तिल छोड़ें। नीम अथवा आम्र पल्लवों से कलश के कंठ का परिवेष्टन करें। उसके ऊपर श्रीफल की स्थापना करें।

 कलश का स्पर्श करते हुए (मन में ऐसी भावना करें कि उसमें सभी पवित्र तीर्थों का जल है) उसका आवाहन पूजन करें। अपनी सामथ्र्य के अनुसार वास्तु मंत्र का जाप करें तत्पश्चात् ब्राह्मण और गृहस्थ मिलकर अपने घर में उस जल से अभिषेक करें।

 हवन एवं पूर्णाहुति देकर सूर्य देव को भी अघ्र्य प्रदान करें, अंत में ब्राह्मण को सुस्वादु, मीठा, उतम भोजन कराकर, दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद ग्रहण कर घर में प्रवेश करें और स्वयं भी बंधु-बांधवों के साथ भोजन करें।

 इस प्रकार जो व्यक्ति वास्तु पूजन कर अपने नवनिर्मित गृह में निवास करता है उसे अमरत्व प्राप्त होता है तथा उसके गृहस्थ एवं पारिवारिक जीवन में रोग, कष्ट, भय, बाधा, असफलता इत्यादि का प्रवेश नहीं होता है तथा ऐसे गृह में निवास करने वाले प्राणी प्राकृतिक एवं दैवीय आपदाओं तथा उपद्रवों से सदा बचे रहते हैं और ‘वास्तु पुरुष’ एवं वास्तु देवताओं की कृपा से उनका सदैव कल्याण ही होता है।

2-वास्तुदेव की तीन विशेषताएं होती हैं  : -

 चर वास्तु  : इसमें वास्तु पुरुष की  नजर या रुख

·        भाद्रपद ( अगस्त, सितम्बर ), आश्विन तथा कार्तिक ( अक्टूबर , नवम्बर ) महीनों के अवधि में वास्तु पुरुष की  नजर या रुख  दक्षिण की ओर  होता है |

·        मार्गशीर्ष (नवम्बर- दिसंबर ), पौष ( दिसंबर – जनवरी ), और माघ (जनवरी-फरवरी ) महीनों में वास्तु पुरुष की  नजर या रुख  पश्चिम की ओर होता है |

·        फाल्गुन (फरवरी – मार्च ), चैत्र (मार्च – अप्रैल ), और  वैशाख (अप्रैल – मई ) महीनों में वास्तु पुरुष की  नजर या रुख  उत्तर की ओर होता है |

·        ज्येष्ठ (मई – जून ), आषाढ़ (जून – जुलाई ), तथा  श्रावण (जुलाई – अगस्त ) महीनों की अवधि में वास्तु पुरुष की  नजर या रुख  पूर्व की ओर होता है |

·        निर्माण कार्य का आरम्भ  या शिलान्यास  और मुख्य द्वार की स्थापना  ऐसे स्थान पर होनी चाहिए जो वास्तुपुरुष की दृष्टी  या नजर की ओर हो , ताकि मनुष्य उस मकान में शान्ति और सुख से रह सके |

स्थिर वास्तु : वास्तु पुरुष का

सिर सदैव :- उत्तर-पूर्व की ओर  रहता है

पैर :- दक्षिण – पश्चिम की ओर रहता है

दाहिना हाथ :- उत्तर-पश्चिम की ओर रहता है

बांया हाथ :- दक्षिण – पूर्व की ओर रहता है रहता है 

इस बात को ध्यान में रखते हुए  मकान का डिजाइन एवं प्लान  बनाना चाहिए |

3-वास्तु पुरुष की नजर या नित्य वास्तु :

प्रत्येक दिन

·        सुबह प्रथम  तीन घंटे - वास्तु पुरुष की दृष्टी अथवा नजर सुबह प्रथम  तीन घंटे पूर्व की ओर रहती है|

·        इसके पश्चात तीन घंटे दक्षिण  की ओर रहती है|

·        तथा उसके बाद तीन घंटे पश्चिम की ओर रहती है|

·        तथा अंतिम तीन घंटे उत्तर की ओर रहती है|

भवन का निर्माण कार्य इसी प्रकार समयानुसार करना  चाहिए |

वास्तु पुरुष की तीन अवसरों पर पूजा अर्चना करनी चाहिये-

·        निर्माण कार्य में  शिलान्यास  करते समय |

·        दूसरी बार  मुख्य द्ववार लगाते  समय |

·        तीसरी बार  गृह प्रवेश के समय पूजा करनी चाहिये |

·        गृह प्रवेश उस समय होना चाहिये जब वास्तुपुरुष की नजर उस ओर हो  ये शुभ रहता है |

4-वास्तु में दिशाओं का महत्व एवं क्षेत्र :-

सूर्य जिस दिशामें उदय होता है उस दिशा को पूर्व दिशा कहते हैं  एवं जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है उस दिशा को पश्चिम दिशा कहते हैं , जब कोई पूर्व  दिशा की ओर मुहँ करके खड़ा होता है , उसके बांयी ओर  उत्तर दिशा  एवं दांयी ओर दक्षिण दिशा होती है |

 वह कोण जहाँ दोनों दिशाएँ मिलती हैं  वह स्थान अधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि वह स्थान दोनों  दिशाओं से आने वाली शक्तियों को मिलाता है | उत्तर – पूर्वी कोने को ईशान , दक्षिण- पूर्वी  कोने को  आग्नेय , दक्षिण – पश्चिम  कोने को नैरत्य , और उत्तर – पश्चिम कोने को वायव्य  कहते हैं | दिशाओं का महत्व निम्न प्रकार से है :-

·        पूर्व - पित्रस्थान , इस दिशा में कोई कोई रोक या रुकावट  नहीं होनी चाहिए , क्योंकि यह नर- शिशुओं व् संतति का स्त्रोत है |

·        दक्षिण – पूर्व (आग्नेय) : यह स्वास्थ्य का स्त्रोत है ,  यहाँ अग्नि का वास रसोई आदि का कार्य करना चाहिए|

·        दक्षिण - सुख , सम्पन्नता  और फसलों का स्त्रोत है

·        दक्षिण – पश्चिम ( नैरत्य) :  व्यवहार और चरित्र का स्त्रोत है तथा दीर्घ जीवन एवं मृत्यु का कारण|

·        पश्चिम-  नाम , यश,  और सम्पन्नता  का स्त्रोत है |

·        उत्तर – पश्चिम (वायव्य) :व्यापार , मित्रता, और शत्रुता में परिवर्तन का स्त्रोत |

·        उत्तर - माँ का स्थान , यह कन्या शिशुओं का स्त्रोत है , अतः इसमें कोई रूकावट नहीं होनी चाहिये |

·        उत्तर – पूर्व (ईशान) : स्वास्थ्य , संपत्ति , नर- शिशुओं , और सम्पन्नता का स्त्रोत है |

5- उपयुक्त भूखंड –

पूर्व मुखी भूखंड - शिक्षा एवं पत्रकारिता  तथा फिलोस्फर जैसे लोगों के लिए उपयुक्त रहते हैं  तथा  हवा

व् प्रकाश के लिए भी अच्छे रहते हैं |

उत्तर मुखी भूखंड - सरकारी  कर्मचारी , प्रशासन से सम्बंधित  कार्यों व् सेना के लोगों के लिए ज्यादा अच्छे रहते हैं |

दक्षिण मुखी भूखंड - ब्यापारिक प्रतिष्ठानों  एवं व्यापार के कार्यों  तथा धन के लिए अच्छे रहते हैं | पश्चिम मुखी भूखंड सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ज्यादा अच्छे रहते हैं |

शिलान्यास करने व् मुख्य द्वार  लगाने का शुभ समय  :-

·        वैशाख शुक्ल पक्ष (अप्रैल – मई ),

·        श्रावण मास (जुलाई – अगस्त ),

·        मार्गशीर्ष मास (नवम्बर – दिसंबर),

·        पौष मास (दिसंबर – जनवरी )

·        और फाल्गुन मास (फरवरी – मार्च) महीने शुभ  होते हैं

व् अन्य महीने अशुभ माने जाते हैं |  उपरोक्त महीनों  के शुक्ल पक्ष की  तिथि  द्वितीया , पंचमी , सप्तमी, नवमी, एकादशी , त्रयोदशी  तिथियों में  वार , सोमवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार, आदि का दिन होना  शुभ रहता है | तथा सूर्य की वृषभ  राशी , वृश्चिक राशि , और कुम्भ राशि  में सूर्य अनुकूल रहता है।

Thursday, July 2, 2020

शास्त्र वाक्य ही अनुकरणीय है।


1- जो केवल अपने लिए ही भोजन बनाता है;जो केवल काम सुख के लिए ही मैथुन करता है;जो केवल आजीविका प्राप्ति के लिए ही पढाई करता है;उसका जीवन निष्फल है(लघुव्यास संहिता)
2---जिस कुल में स्त्री से पति और पति से स्त्री संतुष्ट रहती है;उस कुल में सर्वदा मंगल होता है(मनुस्मृति)
3---राजा प्रजा के ;गुरू शिष्य के ;पति पत्नी के तथा पिता पुत्र के पुण्य-पाप का छठा अंश प्राप्त कर लेता है(पद्मपुराण)
4---मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक स्त्री की रक्षा करनी चाहिएँ! स्त्री की रक्षा होने से सन्तान;आचरण;कुल;आत्मा;औऱ धर्म ---इन सबकी रक्षा होती है(मनुस्मृति)
5--- पिता की मृत्यु हो जाने पर बड़े भाई को ही पिता के समान समझना चाहिए(गरूड़पुराण)
6---अपने पुत्र से भी बढकर दौहित्र;भानजा व भाई का पालन करना चाहिएं; और अपनी पुत्री से बढकर भाई की स्त्री; पुत्रवधु और बहन का पालन करना चाहिएं(शुक्रनीति)
7---नौकर या पुत्र के सिवाय किसी दूसरे के हाथ से करवाया गया दानादि का छठा अंश दूसरे को मिल जाता है(पद्मपुराण)
8---जो दूसरों की धरोहर हड़प लेते हैं;रत्नादि की चोरी करते हैं;पितरों का श्राद्धकर्म छोड़ देते हैं; उनके वंश की वृद्धि नहीं होती(ब्रह्मपुराण)
9---अष्टमी;चतुर्दशी;अमावस्या;पूर्णिमा और सूर्य की संक्रान्ति ---इन दिनों मे स्त्री संग करने वाले को नीच योनि तथा नरकों की प्राप्ति होती है(महाभारत)
10---रजस्वला स्त्री के साथ सहवास करने वाले पुरूष को ब्रह्महत्या लगती है और वह नरकों में जाता है(ब्रह्मवैवर्तपुराण)
11---गृहस्थ को माता-पिता;अतिथि और धनी पुरूष के साथ विवाद नहीं करना चाहिए(गरूड़पुराण)
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साधक के लिए सदा शास्त्र वाक्य ही अनुकरणीय है।
जो साधना ही नहीं करना चाहते हो उनके लिए कुछ भी वर्जित नही है
उनके लिए तो मात्र शरीर ही सब कुछ है
और जिनके लिए शरीर रक्षण ही सर्वोपरि हो वह आत्म कल्याण के लिए कभी आत्म रक्षण का मार्ग क्यों स्वीकार करेंगे
शास्त्र वाक्य सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं
आप उसके नियमो का पालन करिये
वह अपने आप में स्वतः सिद्ध है।
यदि मुझे अपने स्वधर्म का ज्ञान है
तो स्वभावतः वह स्वधर्म मुझे भक्ष्य -अभक्ष्य को ग्रहण करने न करने का ज्ञान स्वतः करा देगा
तभी हम अपने स्वधर्म को निष्ठा पूर्वक पालन कर सकेंगे अन्यथा सदा भ्रमित ही रहेंगे।


Sunday, May 31, 2020

श्री देवी(मूल परा प्रकृति) का रहस्य


श्री देवी(मूल परा प्रकृति) का रहस्य(Secret Of Superior Nature)

           श्री का अर्थ है परा मूल प्रकृति(Superior Nature) श्री विद्या, षोडशी महाविद्या परा मूल प्रकृति का ही नाम है। परा प्रकृति को ही मूल प्रधान प्रकृति कहा गया है॥
           दुर्गा सप्तशती के प्राधानिक रहस्य में मूल प्रधान प्रकृति का वर्णन है ' ' नागं लिंगं योनिं विभ्रति नृप मूर्धनि' ' अर्थात् परा प्रकृति अपने मस्तक पर नाग, लिंग और योनि को धारण करती है॥ नाग का अर्थ है ' ' काल(समय)' ' ,  योनि का अर्थ है ' ' प्रकृति(nature)' '  एवं लिंग का अर्थ है ' ' पुरुष ' ' प्रधान प्रकृति  काल(समय), प्रकृति(nature) एवं पुरुष के ऊपर शासन करती है॥ परा विद्या(Meta Physics) के द्वारा मूल परा प्रकृति के बारे में ही ज्ञान प्राप्त किया जाता है॥  श्री यंत्र के 16 आवरण हैं इसीलिये श्री पराम्बा देवी को  षोडशी कहा गया है। श्री यन्त्र के 16 आवरण की पूजा करनी चाहिये, श्री विद्या के द्वारा मूल परा प्रकृति की उपासना की जाती है॥ प्रकृति दो प्रकार की है 1.परा मूल प्रकृति 2. अपरा प्रकृति॥  दीपावली की रात्रि को कालरात्रि कहा गया है। दुर्गा सप्तशती के वैकृतिक रहस्य में अपरा प्रकृति का वर्णन है। दशानना महाकाली को भगवान विष्णु की वैष्णवी माया कहा गया है, यही वैष्णवी माया अपरा प्रकृति है जो इनकी उपासना करता है, उस भक्त के ऊपर महाकाली कृपा करती हैं और सम्पूर्ण विश्व को उस भक्त के वश में  कर देती है यही ईश्वर रात्रि है इसी ईश्वर रात्रि की अधिष्ठात्री देवी परा प्रकृति भगवती महात्रिपुर सुन्दरी भुवनेश्वरी हैं इसीलिए वैदिक रात्रि सूक्त  और तंत्रोक्त रात्रि सूक्त का पाठ कराना  चाहिये। रात्रि सूक्त के द्वारा महाकाली की ही स्तुति होती है। श्री सूक्त के द्वारा भगवती मूल प्रधान प्रकृति जी का अभिषेक करना चाहिये  और वैदिक रात्रिसूक्त के द्वारा महाकाली का अभिषेक होना चाहिये। श्री यंत्र के 16 आवरण का विधान से पूजा कराना चाहिये। सौन्दर्य लहरी का भी पाठ कराना चाहिये। सौन्दर्य लहरी श्री विद्या का प्रमुख सिद्ध तांत्रिक ग्रंथ है, इस सौंदर्य लहरी के पाठ कराने से जल्दी सिद्धि प्राप्त होती है। ललिताम्बा के 1008 नाम से कमल के पुष्पों द्वारा मूल प्रकृति श्री पराम्बा देवी की अर्चना करनी चाहिये॥ ललिता सहस्रनाम का पाठ कराने से श्री पराम्बिका मूल प्रकृति की विशेष कृपा प्राप्त होती है और साधक को भोग एवम योग दोनों की प्राप्ति होती है॥

 


जाति या वर्ण की व्यवस्था इस प्रकार समझें

 साइंस पढ़े हुए लोग जाति या वर्ण की व्यवस्था इस प्रकार समझें कि जैसे स्वर्ण, रजत और ताम्र आदि 3 धातु 3 गुण सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। अब 3...